साँझ सुहानी थी-नीरू शिवम् के कलम से
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साँझ सुहानी थी
पहाड़ी के ऊंचे छोर पर जाना उसे आज भी अच्छा लगता था,हाँ… अब उम्र के इस मोड़ पर अक्सर साँसों पर नियंत्रण छूटता सा लगता ,पर जब भी उस पहाड़ी पर खड़ी होकर चारों ओर देखा करती तो वो मनमोहक परिदृश्य उसे अतीत के उन सुनहरे पलों की याद दिलाता जो उसके जीवन की एकमात्र पूंजी थी…बच्चे सफल थे ,अपने अपने क्षेत्रों में नाम कमा रहे थे।सबके मना करने के पश्चात भी उसने दो टूक निर्णय सुना दिया था कि जीवन के अंतिम क्षण वो अपने मन के अनुरूप जियेगी…उत्तरदायित्वों ने उसे ब्रह्मचर्य की अनूठी सौगात दी थी,अब प्रकृति के सहचर्य में जीवन से उपहार स्वरूप मिले सन्यासी जीवन को जीना चाहती थी..कितना अच्छा था यहां पर सब…सुबह सुबह की चाय अक्सर चिड़ियों की चहचहाहट के बीच होती…नाश्ते से पूर्व वो वृक्ष की पत्तियों और फूलों से बातें करती…इठलाती लता उसे अपने अपूर्व सौंदर्य का राज़ बताती,बादल उसे अपनी ठंडक देते..नैसर्गिक आभा की झलक उसके चेहरे पर यूं छाई होती ज्यों चाँदनी चांद के चेहरे पर विराजमान होती है…
पर जीवन यूँ सीधा सरल कहाँ होता है…वो अक्सर मुस्कुराता हुआ हमें आश्चर्य चकित कर देने के बहाने ढूंढता रहता है पति के मुंह मोड़ लेने के पश्चात उसने बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हुए सफलता के मार्ग पर अग्रसर किया था, इस बीच वो स्वयं को कहीं भुला बैठी थी,अब अपने साथ समय बिताना चाहती थी,अपने मित्र को प्रायः याद करती,पर वो डोर कब की छूट चुकी थी… उस दिन हल्की बारिश होने के कारण मौसम खूबसूरत था,इस पर पत्तियों की गलन से फिसलन सी हो गयी थी।शाम का धुंधलका उतर रहा था,आकाश के दूसरे छोर पर पहाड़ी के पीछे गुलाबी रंगत थी जो धीरे धीरे गहरी होती जा रही थी…अचानक उसका पैर फिसला ज्यों ही गिरने को हुई,पीछे से दो हाथों ने उसे थाम लिया…आवाज़ आयी,”अब भी झल्ली है…”ये शब्द अचानक उसे दूसरी दुनिया मे ले गए…-“झल्ली”- इस नाम से तो उसे वो ही बुलाया करता था…बरबस ही पीछे घूम गयी तो देखा वही शरारती आंखें , वही चमक ..हाँ , उम्र की थकान ज़रूर थी,पर चुलबुलापन वही था…उस शाम पहाड़ों में एक नही दो परछाइयां थीं जिन्होंने जीवन भर की गाथा को कह डाला था..जीवन की सांझ पर यूँ मुलाकात…अब वो अक्सर एक साथ उन फूलों को देखा करते,तितलियों के रंग से मोहित होते बादलों को छूने का प्रयास करते…साँझ सुहानी थी.
